लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक है?
मुझमें बस यही दोष है। प्रेम में पड़ जाना। प्रेम में पड़ते ही, मैं पुरुष के प्रति बेहद अन्तरंग हो उठती हूँ।
उस वक्त मैं पुरुषों का सात खून माफ़ कर देती हूँ। बहुत बार मैं अपने को डाँट देती हूँ। मैं डपटकर कहती हूँ-'देख, और चाहे जो भी करना, प्यार मत करना।' लेकिन मेरा मन, मेरा तन, कोई भी मेरी डाँट-डपट नहीं मानता। चूँकि मैं अपने दिल के द्वार खुले रखती हूँ, इसलिए कोई भी सुदर्शन अचानक दाखिल हो सकता है। जिस किसी सुदर्शन को देखती हूँ, शुरू-शुरू में लगता है-'यह पुरुष, पुरुषतन्त्र नहीं मानता। धर्म, कुसंस्कार, रक्षणशीलता वगैरह से लाखों मील दूर है। यह पुरुष असाधारण प्रेमी होगा ही होगा।' प्रेम मुझे कल्पना के सात सागर में डुबोये रखता है। प्रेम में डूबी-डूबी मैं कल्पना कर लेती हूँ कि यह पुरुष औरत के प्रति अत्यन्त श्रद्धा शील, औरत की आज़ादी में शत-प्रतिशत विश्वासी है। यह पुरुष औरत के अधिकारों के लिए, शायद खुद ही लड़ेगा। लेकिन जैसे-जैसे दिन गुज़रते जाते हैं प्रेम की गहराई में डूबी-डूबी मैं, एकबारगी सतह पर बह आती हूँ, अन्त में किश्ती पर आ बैठती हूँ। मुझे हताश करते हुए प्रेमी जनाब मुझे समझा देते हैं कि और दस लोगों की तरह वह भी नारी-विद्वेषी है। उसे अगर मौका मिल जाये, तो वह भी औरत का सर्वनाश करने से बाज नहीं आयेगा।
'पुरुष औरत का प्यार पाने लायक नहीं है।' इस बात पर विश्वास करते हुए भी मैं प्यार करती हूँ, पुरुष से ही प्यार करती हूँ। इसकी वजह यह है कि कोशिश करके भी मैं समकामी नहीं हो पाती, मेरी प्रकृति में पुरुष काम प्रचंड है। सुदर्शन, सुडौल, मेदहीन, तीखे-कँटीले पुरुष-शरीर को जीते हुए अतिशय सुख महसूस करती हूँ। पुरुष की भोग सामग्री होना मेरे स्वभाव में नहीं है। मैं भी क्या चाहती हूँ कि पुरुष मेरी भोग-सामग्री हो? नहीं, मैं ऐसा नहीं चाहती। इस नारी-विद्वेषी समाज में, जहाँ औरत ही घर-घर पुरुषों की ही भोग-सामग्री बनकर जी रही है, वहाँ पुरुष को भोग-सामग्री बनाना असम्भव है। अगर सम्भव होता तो बदला लेने के लिए, मैं ही एक बार उन लोगों को भोग-सामग्री बनाकर देखती। मैं जो चीज़ चाहती हैं वह यहाँ नहीं मिलती। उसका नाम है-समानाधिकार! समानाधिकार क्या चीज़ है, यहाँ के पुरुषों की कोई धारणा ही नहीं है। जिन लोगों ने समानाधिकार के किस्से सुने हैं, उन लोगों ने बस सुने ही हैं, समझा कुछ भी नहीं है।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं